Wednesday 25 July 2012

अचानक वो बड़ा हों गया

आज शेखर कितने दिनों बाद लखनऊ आया था और उसे देख अनुष्का कितनी हैरान थी बरबस ही शेखर कि माँ से पूछ उठी ये वही शेखर है जो आपके गृह प्रवेश के समय ज़रा सा था | कल तक बच्चा दिखने वाला शेखर मानो अचानक ही बड़ा हों गया था | पर आज भी बातों में वही बचकानापन जो आज से आठ साल पहले था | और अनुष्का आंटी तो उसकी सबसे प्यारी आंटी हों गयी थी उन चंद दिनों में जो उसने अपने बचपन में लखनऊ में गुज़ारे थे | सारे सारे दिन क्रिकेट के खेल देखने की चाह में वो अनुष्का आंटी के पास ही बैठा रहता था | आज भी वो अनुष्का के साथ बैठ कर अपने बचपन के उन पलों को ही याद कर रहा था |
"कितनी शैतानी करता था नया मैं आंटी , सारा दिन आपको अपनी बातों से परेशान किया करता था ना |"
और अनुष्का भी हंस कर उत्तर में अपना सर हिला देती |
शेखर और उसके घर वाले समय समय पर लखनऊ आते रहते और जब भी आते अनुष्का से मिले बिना वापस नहीं जाते | बड़े ही सज्जन लोग थे और शेखर उनके घर का सबसे हंसमुख सदस्य था |जाते जाते वो अनुष्का आंटी का फोन नंबर ले गया और यदा कदा वो मेसज भेजता रहता था अनुष्का भी उसके मेसज का जवाब दिया करती थी |
इस बार शेखर अपने एक दोस्त प्रशांत के साथ लखनऊ आया और अपने उस दोस्त को वो अनुष्का आंटी से मिलाने भी लाया | प्रशांत कुछ ज्यादा ही खुले विचारों का था | अनुष्का ने उन दोनों को खाना खिलाया और फिर दोनों किसी काम से चले गए | प्रशांत कुछ दिनों तक लखनऊ में रहा और अनुष्का के वहाँ आता जाता रहा , परन्तु अनुष्का को उसका ये खुलापन कतई ना भाया और उसने प्रशांत से वांछित दूरी बनाये रखी | परन्तु इसके विपरीत प्रशांत ने लखनऊ से वापस जाने के बाद अनुष्का को मेसज भेजने शुरू करदिये | ये सभी मेसज द्विअर्थी होते थे | पहले तो अनुष्का ने उन्हें बर्दास्त किया परन्तु एक सीमा के बाद उसने शेखर को ये बताना ज़रूरी समझा | और उसने शेखर के वाया प्रशांत को मेसज करने से मना करा दिया |
आज शेखर कुछ एक साल बाद फिर लखनऊ आया परन्तु इस बार वह वो शेखर नहीं था जो हमेशा हँसता और बकवास करता रहता था |वो बड़ों कि तरह बात कर रहा था और इस बातचीत में उसने अपने पिता के प्रति अपनी असंतुष्टि दिखाई | अंदर से कुछ दुखी था शेखर और वो अनुष्का आंटी से जाने क्या क्या कह गया और अनुष्का भी चुपचाप सुनती रही | 
पर  आज भी अनुष्का ने उसमे एक छोटा सा बच्चा ही देखा जो अपने बड़ों कि गलती पर उनसे नाराज हों बैठा है कि जाओ अब तो मैं तुमसे बात ही नहीं करूँगा बहुत बुरे हों तुम | और इस बार भी अनुष्का से मिल और अपने कुछ काम निपटा शेखर वापस लौट गया और हर बार कि तरह अनुष्का आंटी के पास उसके मेसज आते रहे |
आज बहुत दिनों कि चुप्पी के बाद अनुष्का के पास शेखर का एक मेसज आया ," एक बात कहूँ आंटी आप बुरा तो नहीं मानेंगी |" 
अनुष्का को फिर लगा कोई बचकानी बात होगी और उसने हमेशा कि तरह सुनने कि स्वीकृती दे दी |
और शेखर ने कहा आंटी आज कल मेरा मन ठीक नहीं है मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता आप मुझे कुछ समय दे दिया करिये मुझसे कुछ बात कर लिया कीजिये |
अनुष्का ने कहा," करती तो हूँ तुमसे बात और जो कहना है बोलो |"
शेखर ने कहा ,"किसी रोचक विषय पर बात करिये |"
अनुष्का ने कहा ," रोचक विषय , हा हा तुम ही बताओ तुम्हारे हिसाब से रोचक विषय कौन सा है उसी पर बात कर लेते हैं |"
और बदले में अनुष्का में फिर किसी बचकाने से विषय कि अपेच्छा की थी |
शेखर बिना झिझक बोल पड़ा क्यूँ ना एक एक ज्यादा उमर कि महिला और कम उम्र के लडके के रिश्ते इस टॉपिक पर बात की जाये |
अनुष्का  अचानक चौंक पड़ी वो शेखर जो कल तक उसके लिए बच्चा था आज अचानक वो बड़ा हों गया |




Tuesday 24 July 2012

अस्पृश्यता

आज जो कुछ भी मै लिखने जा रही हूँ शायद उससे कुछ लोगों कि भावनाएं आहत होंगी , पर मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं बस मन में आये एक विचार को आप सबके सन्मुख रखना है | अतः यदि मेरी इस पोस्ट से किसी कि भावनाएं आहत होती है तो उसके लिए मैं छमा प्रार्थी हूँ |

जाति व्यवस्था का जन्म क्यूँ और कैसे हुआ ?
 क्यूँ समाज का वर्गीकरण हुआ ? 
इसके बहुत से कारण आप सब ने पढ़ें होंगे , यह भी पढ़ा होगा कि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से , छत्रियों का जन्म भुजाओं से , वैश्यों का जन्म जांघ से तथा शूद्रों का जन्म पैर से हुआ |

ऋग्वेद में केवल तीन वर्णों का उल्लेख है. इसमें ब्रह्मन और क्षत्र शब्द तो आए हैं, लेकिन वैश्य या शूद्र शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. वैदिक काल में भारतीय प्रजा के लिए हरेक जगह विश शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जिसका अर्थ बसने वाला होता है. कालंातर में शायद यही वैश्य शब्द में बदल गया. हां, पुरुष सूक्त में एक बार राजन्य और एक ही बार शूद्र शब्द का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन उसे तो विद्वान क्षेपक मानते हैं|

भारतवर्ष में प्राचीन हिंदू वर्ण व्यचस्था में लोगों को उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य के अनुसार अलग-अलग वर्गों में रखा गया था।  
पूजा-पाठ व अध्ययन-अध्यापन आदि कार्यो को करने वाले ब्राह्मण 
शासन-व्यवस्था तथा युद्ध कार्यों में संलग्न वर्ग छत्रिय  
व्यापार आदि कार्यों को करने वाले वैश्य  
श्रमकार्य व अन्य वर्गों के लिए सेवा करने वाले शूद्र  कहे जाते थे। 
यह ध्यान रखने योग्य है कि वैदिक काल की प्राचीन व्यवस्था में जाति वंशानुगत नहीं होता था लेकिन गुप्तकाल  के आते-आते आनुवांशिक  आधार पर लोगों के वर्ण तय होने लगे। परस्पर श्रेष्ठता के भाव के चलते नई-नई जातियों की रचना होने लगी। यहाँ तक कि श्रेष्ठ समझे जाने वाले ब्राह्मणों ने भी अपने अंदर दर्जनों वर्गीकरण कर डाला। अन्य वर्ण के लोगों ने इसका अनुसरण किया और जातियों की संख्या हजारों में पहुँच गयी।वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था जन्म-आधारित न होकर कर्म आधारित थी| 
परन्तु  मेरे विचार में ब्राह्मण को ब्राह्मण उसके संस्कारों के कारण कहा गया और उन्हें समाज में उच्च स्थान दिया गया और शूद्रों को अस्पृश्य अर्थात जिन्हें छुआ नया जा सके भी उनके मानसिक विकारों के कारण कहा गया |  
कोई भी व्यक्ति अपने जन्म से अस्पृश्य नहीं होता बल्कि अपने कर्म से अस्पृश्य होता है |  
एक अस्पृश्य व्यक्ति अस्पृश्य इसलिए नहीं होता कि उसके कर्म जिनका निर्वाह वो अपने भरण पोषण के लिए कर रहा है वो गंदे कर्म हैं अपितु उसका कारण यह है कि उनका सानिध्य लोगों के अच्छे मानसिक विचारों का हनन करते है और उनकी उपस्थिति आपको गलत कर्मो कि ओर प्रेरित करती है | अस्पृश्य वो नहीं जो किसी ऐसे कार्य करने वाले के वहाँ जन्मा है अपितु अस्पृश्य वह है जो ऐसे विचारों का जनक है जो दूषित हैं |अस्पृश्य व्यक्ति वह है जिसकी स्वयं कही बात का कोई मोल ना हो , जिसकी नज़र में किसी अपने की जान कि कोई कीमत ना हों अर्थात अस्पृश्य वो हर वो बालक है जो अपने माता पिता की झूठी कसमे सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए खा लें , अस्पृश्य वो माता पिता है जो अपने हित के लिए अपने पुत्र को दांव पर लगा दें | अस्पृश्य वो हैं जिनके लिए अपनी बहन का मान सम्मान तो बहुत ज़रूरी है परन्तु दूसरे के मान सम्मान कि उन्हें कोई परवाह नहीं | आज के युग में जन्मा हर वो बालक जो एक लड़की के साथ छेड़ छाड करते हुए स्वयं कि तुलना कृष्ण से कर मुस्कुरा देता है वो अस्पृश्य है क्योंकि कान्हा तो बस एक ही थे जिन्हे  १८००० रानियों के होने के बाद भी योगीराज कहा जाता है |अर्थात हर वो व्यक्ति जो किसी भी गलत कार्य में संलग्न है अस्पृश्य है | हर जाती मे अस्पृश्य उपस्थित हैं जिन्हें छू कर आप भी वैसे ही बन जाते हैं |
अस्पृश्यता  जन्म से जनित गुण नहीं वरन कर्म से जनित गुण है|

Sunday 1 July 2012

तुम हों तो मैं हूँ तुम नहीं तो मैं नहीं

जब से जन्म लिया है शायद तब से अपने हर रिश्ते में बस तुम्हे ही ढूँढा हैं | बस तुम्हे हाँ बस तुम्हे |
शिव  नाम है तुम्हारा जाने कैसे जुड़ा है मेरा हृदय तुम्हारे साथ कि हर जगह हर ओर बस तुम्ही नज़र आते हों |हिमालय की कंदराओं में तुम , गंगा कि धाराओं में तुम , हरे भरे बागों में तुम , पपीहे की पुकार में तुम , मीरा कि तान में तुम, कबीर के निर्गुण और तुलसी के सगुण में तुम, मेरी शिराओं में तुम , मेरे रोम रोम में तुम हों बस तुम , शिव हों तुम |
शिव अर्थात मेरा अस्तित्व | 
तुम हों तो मैं हूँ तुम नहीं तो मैं भी नहीं |
जब जन्म लिया तो एहसास भी न था कि कौन हूँ और कहाँ से आयी हूँ ,पर जब पहली बार माँ के सीने से लग कर के सोयी थी तब उस सीने कि गर्माहट में तुम्हे महसूस किया था ,धीमे धीमे जब पहली बार बाबा कि उंगली पकड़ चलना सीखा तो उनकी उंगली में तुम्हे पाया, सखियों कि पुकार में तुम नज़र आये और उम्र के हर पड़ाव पर तुम्हे साथ ही पाया |क्यूँ इतना स्नेह दिया तुमने मुझे कि पिता में भी तुम ही दिखे, भाई में भी तुम ही , प्रेमी में भी तुम ही , पति में भी तुम ही और अंततः पुत्र में भी तुम ही |
कैसा है ये मेरा और तुम्हारा रिश्ता ?
मैं जब भी तुम्हारे सामने दुखी हों कर रोई तुमने बिन कुछ बोले मेरी व्यथा सुन ली और मुझे कष्ट देने वाले हर हाँथ को काट दिया तुमने , मैंने तो तुमसे अपने लिए न्याय माँगा था पर तुम्हे तो मेरी आँखों में आँसू स्वीकार ही नहीं थे | मेरे हर आँसू पर मैंने हर बार तुम्हारा तांडव नर्तन देखा है जैसे दछ यज्ञ के दौरान सती के स्वयं दाह के बाद तुमने सृष्टि का नाश किया था , मेरे हर आँसू पर तुम सदैव स्वयं भी रोये हों और तुम्हारे उस दर्द को हर बार महसूस किया है मैंने | तुम ही बताओ ये कौन सा और कैसा रिश्ता है हमारा तुमसे जब भी तुमसे ये पूछती  हूँ मैं  बस उत्तर में तुम्हारी मुस्कराहट ही मिलती है मुझे |
क्या अर्थ लगाऊँ तुम्हारी इस मुस्कुराहट का , क्या वही अर्थ लगाऊं जो मीरा कान्हा के अपनी पुकार पर आ जाने पर लगाया करती थी |
प्रेम है तुम्हे भी मुझसे वैसा ही जैसा कान्हा को मीरा से था , राधा से तो अपनी तुलना कर नहीं सकती मैंने क्यूंकि लाख प्रेम के बाद भी तुमने मेरे भाग्य में तो बिछोह और विरह ही लिखा है | बस उस प्रेम का मान रखने को दौड आते हों और फिर छोड़ जाते हों मुझे अकेला इस विश्वास के साथ कि भले तुम साथ न हों मेरे पर मैं जब भी पुकारूंगी तुम सब छोड़ कर मेरे लिए मेरे पास दौड़ आओगे |
आश्चर्य जनक है और अजीब भी मेरा और तुम्हारा ये रिश्ता पर यही मेरे जीवन का आधार है फिर वही एक बात जो सत्य है तुम हों तो मैं हूँ तुम नहीं तो मैं नहीं |