Tuesday 24 July 2012

अस्पृश्यता

आज जो कुछ भी मै लिखने जा रही हूँ शायद उससे कुछ लोगों कि भावनाएं आहत होंगी , पर मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं बस मन में आये एक विचार को आप सबके सन्मुख रखना है | अतः यदि मेरी इस पोस्ट से किसी कि भावनाएं आहत होती है तो उसके लिए मैं छमा प्रार्थी हूँ |

जाति व्यवस्था का जन्म क्यूँ और कैसे हुआ ?
 क्यूँ समाज का वर्गीकरण हुआ ? 
इसके बहुत से कारण आप सब ने पढ़ें होंगे , यह भी पढ़ा होगा कि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से , छत्रियों का जन्म भुजाओं से , वैश्यों का जन्म जांघ से तथा शूद्रों का जन्म पैर से हुआ |

ऋग्वेद में केवल तीन वर्णों का उल्लेख है. इसमें ब्रह्मन और क्षत्र शब्द तो आए हैं, लेकिन वैश्य या शूद्र शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. वैदिक काल में भारतीय प्रजा के लिए हरेक जगह विश शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जिसका अर्थ बसने वाला होता है. कालंातर में शायद यही वैश्य शब्द में बदल गया. हां, पुरुष सूक्त में एक बार राजन्य और एक ही बार शूद्र शब्द का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन उसे तो विद्वान क्षेपक मानते हैं|

भारतवर्ष में प्राचीन हिंदू वर्ण व्यचस्था में लोगों को उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य के अनुसार अलग-अलग वर्गों में रखा गया था।  
पूजा-पाठ व अध्ययन-अध्यापन आदि कार्यो को करने वाले ब्राह्मण 
शासन-व्यवस्था तथा युद्ध कार्यों में संलग्न वर्ग छत्रिय  
व्यापार आदि कार्यों को करने वाले वैश्य  
श्रमकार्य व अन्य वर्गों के लिए सेवा करने वाले शूद्र  कहे जाते थे। 
यह ध्यान रखने योग्य है कि वैदिक काल की प्राचीन व्यवस्था में जाति वंशानुगत नहीं होता था लेकिन गुप्तकाल  के आते-आते आनुवांशिक  आधार पर लोगों के वर्ण तय होने लगे। परस्पर श्रेष्ठता के भाव के चलते नई-नई जातियों की रचना होने लगी। यहाँ तक कि श्रेष्ठ समझे जाने वाले ब्राह्मणों ने भी अपने अंदर दर्जनों वर्गीकरण कर डाला। अन्य वर्ण के लोगों ने इसका अनुसरण किया और जातियों की संख्या हजारों में पहुँच गयी।वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था जन्म-आधारित न होकर कर्म आधारित थी| 
परन्तु  मेरे विचार में ब्राह्मण को ब्राह्मण उसके संस्कारों के कारण कहा गया और उन्हें समाज में उच्च स्थान दिया गया और शूद्रों को अस्पृश्य अर्थात जिन्हें छुआ नया जा सके भी उनके मानसिक विकारों के कारण कहा गया |  
कोई भी व्यक्ति अपने जन्म से अस्पृश्य नहीं होता बल्कि अपने कर्म से अस्पृश्य होता है |  
एक अस्पृश्य व्यक्ति अस्पृश्य इसलिए नहीं होता कि उसके कर्म जिनका निर्वाह वो अपने भरण पोषण के लिए कर रहा है वो गंदे कर्म हैं अपितु उसका कारण यह है कि उनका सानिध्य लोगों के अच्छे मानसिक विचारों का हनन करते है और उनकी उपस्थिति आपको गलत कर्मो कि ओर प्रेरित करती है | अस्पृश्य वो नहीं जो किसी ऐसे कार्य करने वाले के वहाँ जन्मा है अपितु अस्पृश्य वह है जो ऐसे विचारों का जनक है जो दूषित हैं |अस्पृश्य व्यक्ति वह है जिसकी स्वयं कही बात का कोई मोल ना हो , जिसकी नज़र में किसी अपने की जान कि कोई कीमत ना हों अर्थात अस्पृश्य वो हर वो बालक है जो अपने माता पिता की झूठी कसमे सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए खा लें , अस्पृश्य वो माता पिता है जो अपने हित के लिए अपने पुत्र को दांव पर लगा दें | अस्पृश्य वो हैं जिनके लिए अपनी बहन का मान सम्मान तो बहुत ज़रूरी है परन्तु दूसरे के मान सम्मान कि उन्हें कोई परवाह नहीं | आज के युग में जन्मा हर वो बालक जो एक लड़की के साथ छेड़ छाड करते हुए स्वयं कि तुलना कृष्ण से कर मुस्कुरा देता है वो अस्पृश्य है क्योंकि कान्हा तो बस एक ही थे जिन्हे  १८००० रानियों के होने के बाद भी योगीराज कहा जाता है |अर्थात हर वो व्यक्ति जो किसी भी गलत कार्य में संलग्न है अस्पृश्य है | हर जाती मे अस्पृश्य उपस्थित हैं जिन्हें छू कर आप भी वैसे ही बन जाते हैं |
अस्पृश्यता  जन्म से जनित गुण नहीं वरन कर्म से जनित गुण है|

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