क्यूँ है इतनी पाबन्दी , तुम ये मत करो तुम ये मत करो , तुम ऐसा मत करो तुम वैसा मत करो ,क्यूंकि तुम करोगे तो गलती ही करोगे | क्या इंसान कि कुछ गलतियाँ उसका पीछा नहीं छोडती हैं हमेशा उसके जीवन में कलुषता घोलती रहती है | बहुत सोचा है इस विचार पर मैंने और अब लगता है श्री श्री रविशंकर जी , आचार्य रजनीश , कृपालु जी महराज जैसे कितने ही गुरुओं ने अपनी दीच्छा के प्रथम चरण में जो कहा छमा करना सीखो पहले स्वयं को अपनी गलतियों के लिए और फिर दूसरों को उनकी भूलों के लिए | क्या ये छमा दान कोई मनुष्य किसी को ह्रदय से दे पाया है |
छमा करने के बाद क्या वो विषय या भूल जिसके लिए मनुष्य को छमा किया गया है उसे बार बार उसे जताना चाहिए |
किसी भी मनुष्य के द्वारा कि गयी गलती को भूल इसीलिए कहा जाता है ताकि उसे भूल कर उसे आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया जा सके न कि बार बार उन्ही बातों को दोहरा कर उसे नीचा दिखाने कि चेष्ठा कि जाये |
वो तो वैसे ही गलती करने वाला शारीरिक और मानसिक वेदना दोनो झेल चुका होता है और बार बार उसे याद दिला उसे आत्मग्लानी के उसी भंवर में धकेल देना क्या उचित है |
गलतियाँ बार बार तभी होती है जब तक गलती करने वाले का विश्वास नहीं टूटता उदाहरण के तौर पर यदि कोई इंसान किसी इंसान से बार बार धोखा खाता है तो इसका अर्थ ये नहीं कि वो गलत है इसका अर्थ ये है कि अभी उस इंसान पर उसका भरोसा कायम है | और ये निशानी है उस मनुष्य के सच्चे होने की | परन्तु किसी भी मनुष्य के जीवन में इसकी एक सीमा निर्धारित होती है कुछ कि सहनशीलता एक धोखे में ही समाप्त हों जाती है और वो दोबारा वैसी गलती नहीं करते इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी हैं जो किसी के द्वारा दिए धोखे को उसकी भूल समझ बार बार माफ करते हैं तब तक जब तक उन्हें ये एहसास नहीं हों जाता कि उनकी प्रवित्ति वैसी ही है जैसी विषधर भुजंग कि होती है |
इतनी सामर्थ्य की किसी को बार बार छमा दान दे सके संत में ही होती है जो बार बार डंक मारने वाले बिच्छू को भी उठा कर किनारे रख देता है , क्यूंकि ये तो प्रवित्ति का अंतर है बिच्छू कि प्रवित्ति है डंक मारना और संत कि प्रवित्ति है छमा करना |
मेरे विचार में जिन गलतियों के लिए आपने कभी किसी को छमा किया हों उन गलतियों का ज़िक्र करके उसे वापस उन्ही मानसिक स्थितियों में न धकेले जब भी किसी को छमा करें पूर्णता से करें |
बहुत अच्छा लेख है ! ज्ञानवर्धक :)
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